मीराबाई के बारे में एक प्रसिद्ध कहानी है. मीरा मथुरा पहुंचीं. वहां वह एक साधु के दर्शन के लिए उसके आश्रम में गईं तो उन्हें जवाब मिला - ‘संन्यासी जी स्त्रियों से नहीं मिलते हैं. महिलाओं का दर्शन नहीं करना चाहते.’ इसपर मीराबाई ने उस संन्यासी को आड़े हाथ लेते हुए कहा :
‘हुंतो जाणती हती के व्रजमां पुरुष छे एक.
व्रजमां रही तमे पुरुष रह्या, भलो तमारो विवेक..’
व्रजमां रही तमे पुरुष रह्या, भलो तमारो विवेक..’
यानी ‘मैं तो समझती थी कि व्रजभूमि में एक ही पुरुष है और वह है भगवान कृष्ण. अन्य कोई पुरुष है ही नहीं. पर जब आप इस व्रज में रह कर भी पुरुष ही बने रहे तो आपने अपना खूब विवेक सिद्ध कर दिखाया.’ मीराबाई की फटकार सुनकर संन्यासी जी बाहर आए और उन्होंने मीराबाई से क्षमा मांगी. मीरा ने वास्तव में उस संन्यासी को वैदिक चिंतनधारा के उस बुनियादी आध्यात्मिक विचार की याद दिलाई थी जिसे गाते हुए अथर्ववेद का एक ऋषि कहता है- ‘त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि त्वं कुमार उत वा कुमारी.’ यानी तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो और कुमारी भी तुम्हीं हो. यह तो ऊपर-ऊपर का आकारभेद है. अंतर से मानवता तो एक ही है.
आज हम उन पण्डे-पुजारियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते जिन्होंने अज्ञानतावश ‘धर्म’ की रक्षा के नाम पर नानक को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया, लेकिन इसी बहाने नानक ने जो एक बड़ी लकीर खींच दी वह हमें मिल गई
ठीक वैसे ही जैसे कबीर ने बार-बार कहा - एकै पुरुष एक है नारी, ताकर करहु विचारा. एकै अण्ड सकल चौरासी, भरम भुला संसारा. इसी बात को उन्होंने ऐसे भी कहा- पण्डित देखहु हृदय विचारी, को पुरुषा को नारी. या ऐसो भरम बिगुर्चन भारी.. वेद कितेब दीन औ दोजख, को पुरुषा को नारी.. ...एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, एक रुधिर एक गूदा.. ईसा मसीह ने तो इतना तक कह दिया कि जिसे परमेश्वर यानि सम्पूर्णता प्राप्त करनी है उसे स्त्रीत्व और पुरुषत्व के अभिमान और भान से परे जाकर ‘नपुंसक’ बनना होगा.
ठीक ऐसा ही गुरु नानक देव के साथ भी हुआ था. 16वीं सदी के पहले दशक में पंजाब से कन्याकुमारी की अपनी यात्रा के दौरान गुरु नानक देव अपने एक मुस्लिम शिष्य मरदाना के साथ उड़ीसा के प्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी मंदिर पहुंचे तो उन्हें वहां प्रवेश नहीं करने दिया गया. कहा जाता है कि तब वहां की सीढ़ियों पर ही आसन जमाकर बैठ गए नानक ने एक सुंदर भजन की रचना कर डाली. आज वह भजन ‘कीर्तन सोहिला’ के नाम से गाए जाने वाले भजनों में शामिल है, जिसे रात को सोने से पहले सिखमत का हर व्यक्ति गाकर सोता है. इस भजन में नानक ने कहा-
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥ ...सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ (तुम्हारी हज़ार आंखें हैं, फिर भी तुम्हारे एक भी आंख नहीं है. तुम्हारे हज़ारों आकार, फिर भी एक भी आकार नहीं. तुम्हारा यह खेल मुझे मोहित करता है. हम सबमें जो यह ज्योति है तुम वही ज्योति हो. हम सबके भीतर दमक रहे हो.)
आज हम उन पण्डे-पुजारियों के बारे में कुछ भी नहीं जानते जिन्होंने अज्ञानतावश ‘धर्म’ की रक्षा के नाम पर नानक को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया, लेकिन इसी बहाने नानक ने जो एक बड़ी लकीर खींच दी वह हमें मिल गई. वैसे पुरी और वैद्यनाथ धाम के मंदिरों में जिन कुछ प्रसिद्ध लोगों को नहीं प्रवेश करने दिया गया, उनकी सूची लंबी है और उसमें स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, विनोबा, डॉ. भीमराव अंबेडकर, रविन्द्रनाथ टैगोर, इंदिरा गांधी से लेकर लॉर्ड कर्जन और थाईलैंड की महारानी महाचक्री श्रीधरन तक शामिल हैं.
1924-25 के दौरान केरल में वाइकोम के महादेव मंदिर में कथित अवर्णों के प्रवेश को लेकर हुआ आंदोलन एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिससे मंदिर-प्रवेश आंदोलन से जुड़े उत्साही लोग आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं
ऐसे ही हमारे यहां मंदिरों में प्रवेश के लिए हुए आंदोलनों की सूची भी लंबी है. 1924-25 के दौरान केरल में वाइकोम के महादेव मंदिर में कथित अवर्णों के प्रवेश को लेकर हुआ आंदोलन एक महत्वपूर्ण आंदोलन था जिसे वाइकोम सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है.
वाइकोम सत्याग्रह कई मायनों में महत्वपूर्ण और दिलचस्प था, जिससे मंदिर-प्रवेश आंदोलन से जुड़े उत्साही लोग आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं. मंदिर प्रवेश के लिए सत्याग्रह का तरीका क्या हो? इस पर सभी प्रकार के फैलाए जा रहे भ्रमों और दुष्प्रचारों का समाधान करने के लिए श्री नारायण गुरु, पेरियार, महात्मा गांधी और अन्य लोगों के बीच सार्वजनिक माध्यमों से और पारदर्शी तरीके से कई संवाद हुए, जिससे सत्याग्रह का वास्तविक सिद्धांत और तरीका सीख रहे भारतवासियों को इसे समझने में बड़ी मदद मिली. हिंसा और जोर-जबर्दस्ती का प्रयोग नहीं करना, विरोधी के प्रति द्वेष नहीं रखना, बाहरी इलाकों से और अन्य संप्रदाय के लोगों से धन इत्यादि का सहयोग नहीं लेना, मंदिर प्रवेश के अंतिम लक्ष्य को चरणशः प्राप्त करने का धैर्य रखना, केवल कानून बनवाकर इसका समाधान प्राप्त कर लेने को ही अपना इष्ट नहीं समझना; यह सब देशभर से यहां पहुंचे सत्याग्रहियों को सीखने का अवसर मिला.
वास्तविक धर्म के मार्ग से भटक चुके जन्मना बाभनों द्वारा सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार हुए और प्रशासन ने खुलकर अत्याचारियों की अनदेखी और मदद की. फिर भी सत्याग्रहियों ने अपना धैर्य नहीं खोया. गांधीजी ने अत्याचारियों और प्रशासन को चेताते हुए लिखा कि सत्याग्रहियों पर जितना अत्याचार होगा, उतना ही अधिक इस आंदोलन को जनसमर्थन, सहानुभूति और नैतिक आत्मबल मिलता जाएगा. केरल के नंबूदरी बाभन अपने जड़वत संस्कारों का इतना शिकार हो चुके थे कि प्रमुख नंबूदरी और महात्मा गांधी के बीच जब समझौते की बात चल रही थी तो उन्होंने महात्मा गांधी के साथ भी कथित ‘अछूतों’ जैसा ही व्यवहार किया क्योंकि उनका मानना था कि अछूतों के स्पर्श से गांधी और अन्य सत्याग्रही कथिततौर पर अपवित्र हो चुके हैं. गांधीजी दोनों ही पक्षों के प्रबोधन के लिए तटस्थ भाव से समय-समय पर अपने साहसिक विचार व्यक्त करते रहे. जैसे मलयाली अखबार अल-अमीन के संपादक अब्दुर रहीमान को उन्होंने इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होने की सलाह दी. ठीक इसी तरह गांधीजी के साप्ताहिक पत्र ‘यंग इंडिया’ के संपादक जॉर्ज जोसेफ को भी उन्होंने इस आंदोलन में सीधे सत्याग्रही के तौर पर नहीं जुड़ने की सलाह दी.
गांधी जी का मानना था कि वाइकोम में यदि अहिंसापूर्ण तरीकों से विजय हासिल की गई तो इसमें शक नहीं कि पण्डे-पुजारियों द्वारा फैलाए गए अन्धविश्वासों के गढ़ की नींवें आमतौर पर हिल जाएंगी
इस बारे में अपनी स्थिति को साफ करते हुए 8 मई, 1924 को यंग इंडिया में गांधीजी ने लिखा- ‘मुझे लगता है कि वाइकोम सत्याग्रह अपनी मर्यादाएं भंग करने लगा है. मैं तो यह चाहता हूं कि सिख यहां अपना लंगर लगाना बंद कर दें और यह आंदोलन सिर्फ हिंदुओं तक सीमित रहे. यदि मालाबार के हिंदू सुधारक गैर-हिंदुओं की सहानुभूति के अलावा और किसी प्रकार की सहायता अथवा हस्तक्षेप स्वीकार करेंगे तो सारे हिंदू समाज की हमदर्दी खो बैठेंगे. मुझे पूरा विश्वास है कि वाइकोम में इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हिंदू सुधारक अपने कट्टरपंथी भाइयों के विचारों में जोर-जबरदस्ती के बल पर परिवर्तन नहीं चाहते. मैं सुधारकों का पूरा सम्मान करते हुए अनुरोध करना चाहता हूं कि सनातनी लोगों को आतंकित करने की कोशिश न करें. ...वाइकोम में यदि अहिंसापूर्ण तरीकों से विजय हासिल की गई तो इसमें शक नहीं कि पण्डे-पुजारियों द्वारा फैलाए गए अन्धविश्वासों के गढ़ की नींवें आमतौर पर हिल जाएंगी. ...लेकिन अगर ईसाई, मुसलमान, अकाली और इन हिंदू-सुधारकों के सभी गैर-हिंदू मित्र भी कट्टरपंथी हिंदूओं के खिलाफ प्रदर्शन करने लगें. इन सुधारकों की रुपये-पैसे से मदद करने लगें और अंत में उन्हें आतंकित करके उन पर हावी हो जाएं, तो हिंदू धर्म का क्या होगा? क्या हम इसे सत्याग्रह कह सकेंगे? क्या सनातनी लोगों के घुटने टेक देना स्वेच्छा-प्रेरित कहा जाएगा? क्या उसे हिंदू धर्म में सुधार कहेंगे?’
इसके सात वर्ष बाद 1930 में जब बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने नाशिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश का आंदोलन शुरू किया तो इसे भी कालाराम मंदिर सत्याग्रह का नाम दिया गया. अपने तौर-तरीकों के आधार पर भी कहा जा सकता है कि यह एक सत्याग्रह आंदोलन ही था. हालांकि मंदिर-प्रवेश के विषय में अंतिम उद्देश्य और बाकी रवैयों में डॉ अंबेडकर के विचार थोड़े भिन्न अवश्य थे. चार फरवरी, 1933 को महात्मा गांधी से यरवदा जेल में मिलने के दस दिन बाद डॉ अंबेडकर ने मंदिर-प्रवेश के मुद्दे पर विस्तार से अपना एक वक्तव्य जारी किया. इसे पढ़कर लगता है कि बुनियादी फर्क केवल दृष्टिकोण का था और कोई टकराव जैसी स्थिति कदापि नहीं थी. अपने इस वक्तव्य में उन्होंने भौतिकतावादी और कानूनी दृष्टिकोण की स्पष्ट रूप से वकालत की थी. वंचित समुदायों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह एक अर्थ में ज़रूरी भी जान पड़ता था.
21 मार्च 1955 को जब विनोबा एक फ्रांसीसी महिला के साथ पुरी के मंदिर में दर्शन के लिए गए तो मंदिर के पुजारियों ने कहा कि विनोबा यदि उस फ्रेंच महिला को बाहर रखकर मंदिर में प्रवेश करना चाहें तो कर सकते हैं
लेकिन गांधीजी का दृष्टिकोण इस मामले में विशुद्ध आध्यात्मिक था. उन्हें कानून की अहमियत और इसकी सीमा दोनों का भान था. इस बारे में किसी जोर-जबरदस्ती और जल्दबाजी के पक्ष में भी वे नहीं थे. किसी कानूनमात्र से इस प्रश्न का पूरा समाधान हो जाएगा, इसमें उन्हें संदेह था. और यही सच भी साबित हुआ. मंदिर-प्रवेश की शाही घोषणाएं और कानून, अस्पृश्यता उन्मूलन कानून और संविधान के मौलिक अधिकारों के बावजूद भी कभी जाति तो कभी पंथ, राष्ट्रीयता और लिंग के आधार पर मंदिर में न प्रवेश करने देने की मूर्खता लंबे समय तक इस समाज में बनी रही और कहीं-कहीं तो आज भी बनी ही हुई है.
वास्तव में, सत्याग्रह सुनने में जितना आसान लगता है, उसे पूरी तरह समझना और व्यवहार में बरतना उतना ही मुश्किल और साहस का काम है. वाइकोम में मंदिर-प्रवेश का आंदोलन सत्याग्रह को समझने की एक बड़ी प्रयोगशाला बनी. इस आंदोलन के 200 प्रमुख स्वयंसेवी सत्याग्रहियों में गांधी का पहले से चुना हुआ पहला सत्याग्रही 29 वर्ष का नौजवान विनोबा भी था. गांधीजी की मृत्यु को बाद मंदिर-प्रवेश संबंधी अपने सत्याग्रही अनुभवों और प्रयोगों को विनोबा ने भारत भर में लगातार आजमाया और अंध-विश्वास और अज्ञानता के अंधकार में फंसे पण्डे-पुजारियों के प्रबोधन की विनम्र चेष्टा की.
केलप्पन के नेतृत्व वाले गुरुवायूर मंदिर सत्याग्रह के दूसरे चरण में मंदिर प्रवेश के आंदोलन में भी विनोबा गांधीजी के साथ थे. गांधीजी के उपवास के बाद उस मंदिर को हरिजनों के लिए भी खोल दिया गया. बाद में विनोबा ने कुछ ईसाइयों के साथ वहां प्रवेश करने की चेष्टा की, लेकिन उन्हें कहा गया कि वह अकेले तो आ सकते हैं लेकिन उनके ईसाई साथी भीतर नहीं जा सकते. इस पर विनोबा यह कहकर वहां से लौट गए कि ‘ऐसी स्थिति में मुझे वास्तव में देवता के दर्शन नहीं होंगे, इसलिए मैं भी भीतर नहीं जाता’.
जब विनोबा भावे के ईसाई साथियों को गुरुवायूर मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया गया तो विनोबा यह कहकर वहां से लौट गए कि ‘ऐसी स्थिति में मुझे वास्तव में देवता के दर्शन नहीं होंगे, इसलिए मैं भी भीतर नहीं जाता’
21 मार्च 1955 को जब विनोबा एक फ्रांसीसी महिला के साथ पुरी के मंदिर में दर्शन के लिए गए तो मंदिर के पुजारियों ने कहा कि विनोबा यदि उस फ्रेंच महिला को बाहर रखकर मंदिर में प्रवेश करना चाहें तो कर सकते हैं. इसपर विनोबा भगवान् जगन्नाथ की जगह मंदिर के पुजारी को ही सत्याग्रही प्रणाम कर वापस लौट गए. बाद में उन्होंने कहा- ‘जिन्होंने हमको अंदर जाने से मना किया, उनके लिए, हमारे मन में किसी प्रकार का न्यून भाव नहीं है. मैं जानता हूं कि उनको भी दुःख हुआ होगा, परंतु वे एक संस्कार के वश थे, इसलिए लाचार थे. पर हमारे देश के लिए और हमारे धर्म के लिए यह बड़ी ही दुःखदायक घटना है. ...अपने धर्म-स्थानों को एक जेल के माफिक बना देना हमारे लिए बड़ा हानिकारक होगा और उनमें सज्जनों को प्रवेश कराने में हिचकिचाहट रही, तो मंदिरों के लिए आज जो थोड़ी बहुत श्रद्धा बची हुई है, वह भी खत्म हो जाएगी.’
विनोबा ने जब ऐसा ही प्रयास बिहार के वैद्यनाथधाम मंदिर में किया था तो उनपर मंदिर प्रशासन के लोगों ने भयानक रूप से हिंसक हमला कर दिया. इस दौरान विनोबा के कान पर इतनी जोर से प्रहार हुआ कि उनका बायां कान हमेशा के लिए बहरा हो गया. इस हमले में विनोबा के साथ गई कुसुम देशपांडे के तो छाती पर ही इतना प्रहार हुआ कि उन्हें पन्द्रह दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. इस घटना के बाद विनोबा ने कहा कि ‘मेरी यह बिल्कुल इच्छा नहीं है कि इन लोगों को कोई सजा हो. मेरी तरफ से सब तरह से उन्हें क्षमा है.’ हालांकि इसके बाद बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह वहां गए और मंदिरों को ‘हरिजनों’ के लिए भी खोला गया.
जब मुस्लिम फातिमा और ईसाई हेमा ने पंढरपुर के विठोबा की मूर्ति को छुआ
विनोबा के अहिंसक, सत्याग्रही और अध्यात्मिक प्रयासों से 30 मई, 1958 को महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पंढ़रपुर के विठोबा मंदिर के प्रबंधकों ने बकायदा पत्र लिखकर उन्हें अपने सभी प्रकार के साथियों के साथ मंदिर में प्रवेश का लिखित आमंत्रण दिया. विनोबा के साथ एक मुस्लिम महिला फातिमा और एक जर्मन ईसाई महिला हेमा भी थीं. पुजारियों ने इन दोनों से कहा कि ‘आप भगवान् को स्पर्श करिए. यहां एक रिवाज है, भगवान् को आलिंगन देते हैं. संत ज्ञानेश्वर के शब्दों में, ‘रखुमादेवी वरु. हातेविन स्पर्शिले, चक्षुविल खिले. ब्रह्म गे माये.’ दोनों महिलाओं ने भगवान विठोबा की मूर्ति को स्पर्श किया. बाद में विनोबा ने कहा कि ‘इन दोनों के स्पर्श से भगवान् का शरीर रोमांचित हुआ होगा.’
विनोबा ने जब वैद्यनाथधाम मंदिर में अपने साथियों के साथ प्रवेश की कोशिश की तो उनपर मंदिर प्रशासन के लोगों हमला कर दिया. इस दौरान उनके कान पर इतनी जोर से प्रहार हुआ कि उनका बायां कान हमेशा के लिए बहरा हो गया
आज उसी महाराष्ट्र में किसी मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं द्वारा मंदिर को न्यायालय से आदेश दिलवाना पड़ता है. लेकिन कानूनी आदेश और कानूनी अधिकारवादी नज़रिए से इसका पूरा सामाजिक और आध्यात्मिक समाधान मिल जाता हो ऐसा नहीं है. वह तो तभी होगा जब गूढ़वाद की जगह ले चुके रूढ़वाद में भगवान् के विशेषाधिकारी प्रतिनिधि बन बैठे लोगों का इस हद तक प्रबोधन और हृदय-परिवर्तन हो कि वे किसी फातिमा और एलिजाबैथ जिग्लर (स्विटजरलैंड की वह महिला जिसे पुरी के मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया) को सप्रेम आमंत्रित कर कहें कि आप आईये और हमारे शनिदेव, हमारे जगन्नाथ और बलभद्र को स्पर्श कीजिए. हमारा भगवान सौ टका संन्यासी है और उसे अपने ब्रह्मचर्य पर पूरा भरोसा है. आपके स्पर्श से न उसका ब्रह्मचर्य भंग होगा, और न ही वह दूषित होगा. एक संन्यासी पिता के रूप में वह आपको पुत्री की तरह देखेगा और एक ब्रह्मचारी के रूप में माता की तरह. और कुछ नहीं तो वह आपको किसी भी जाति, पंथ, लिंग और रंग से परे केवल आत्मतत्व के रूप में देखेगा. आईये कि अपने संन्यासी, ब्रह्मचारी और शुद्धस्वरूप भगवान् वाली समदर्शी दृष्टि और उसका आत्मविश्वास हम स्वयं अपने में भी विकसित करना चाहते हैं.
और हां, प्रवेश-मात्र की जिद वाले छद्म-समानतावादी अधिकारों पर जश्न मनाने से आगे हमारी महिलाएं ‘शंकराचार्या’ बनने का भी आत्मविश्वास पालें. कोर्ट वगैरह से ली गई जीत अपनी जगह ठीक है, लेकिन थोड़ी छोटी है. इस मामले में असल जीत तो महापजापति गौतमी (बुद्ध के संघ में शामिल होनेवाली पहली भिक्खुणी), मीराबाई, वेणाबाई, लल्लेश्वरी, कथित अछूत और वेश्या की बेटी संत कान्होपात्रा, संत ताजबीबी, संत हसीना, हमीदा और मां पीरो जैसों की ही कही जाएगी.
सौजन्य:सत्याग्रह
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